एकादशः पाठः
प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद्
प्रस्तुतः नाटयांशः महाकविविशाखदत्तविरचितस्य “मुद्राराक्षसम्” इति नाटकस्य प्रथमाड्काद् उद्धृतोऽस्ति। नाटकस्य अस्मिन् भागे चन्दनदासः सुहृदर्थं प्राणोत्सर्गं कर्तुमपि प्रयतते। अत्र कथानवेफ नन्दवंशस्य विनाशानन्तरं तस्य हितैषिणां बन्धनक्रमे चाणक्येन चन्दनदासः सम्प्राप्तः। बद्धोऽपि चन्दनदासः अमात्यादीनां विषये न किमपि रहस्यं प्रोक्तवान्। वार्तालापप्रसड्गे:। राजदण्डभीतिः समुत्पादनेऽपि सः गोप्यरहस्यम् अनुद्घाटड्ढ राजदण्डं स्वीकृत्य सुहृदि निषं प्रदर्शयति।
पाठ परिचय – प्रस्तुत पाठ संस्कृत के प्रख्यात नाटककार विशाखदत्त द्वारा प्रणीत् ‘मुद्राराक्षसम्’ नामक नाटक के प्रथम अङ्क से यह समाकलित है। नन्दवंश का विनाश करके उसके हितैषियों को खोज – खोजकर पकड़वाने के लिए चाणक्य ने अमात्य राक्षस एवं उसके कुटुम्बियों की जानकारी प्राप्त करने के लिए चन्दनदास से वार्त्तालाप किया, किन्तु चाणक्य को अमात्य राक्षस के विषय में कोई सूचना न दी। इस प्रकार वह ( चन्दनदास) अपनी मित्रता पर दृढ़ रहता है। उसके मैत्री भाव से प्रसन्न होता हुआ भी चाणक्य जब उसे राजदण्ड का भय दिखाता है, तब चन्दनदास राजदण्ड भोगने के लिए भी सहर्ष तैयार हो जाता है। इस प्रकार अपने सुहृद् के लिए प्राणों का भी त्याग करने के लिए तत्पर चन्दनदास अपनी सुहृद्-निष्ठा का ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत करता है। यह घटना सदैव सराहनीय, उदारणीय व अनुकरणीय है।
चाणक्यः – वत्स! मणिकारश्रेष्ठिनं चन्दनदासमिदानीं द्रष्टुमिच्छामि।
शिष्यः – तथेति (निष्क्रम्य चन्दनदासेन सह प्रविश्य) इतः इतः श्रेष्ठिन्! (उभौ परिक्रामतः)
शिष्यः – (उपसृत्य) उपाध्याय! अयं श्रेष्ठी चन्दनदासः।
चन्दनदासः – जयत्वार्यः
चाणक्यः – श्रेष्ठिन्! स्वागतं ते। अपि प्रचीयन्ते संव्यवहाराणां वृद्धिलाभाः?
चन्दनदासः – (आत्मगतम्) अत्यादरः शड्कनीयः। (प्रकाशम्) अथ किम्। आर्यस्य प्रसादेन अखण्डिता मे वणिज्या।
चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन्! प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः प्रतिप्रियमिच्छन्ति राजानः।
चन्दनदासः – आज्ञापयतु आर्यः, किं कियत् च अस्मज्जनादिष्यते इति।
चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन्! चन्द्रगुप्तराज्यमिदं न नन्दराज्यम्। नन्दस्यैव अर्थसम्बन्धः प्रीतिमुत्पादयति। चन्द्रगुप्तस्य तु भवतामपरिक्लेश एव।
चन्दनदासः – (सहर्षम्) आर्य! अनुगृहीतोऽस्मि।
चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन्! स चापरिक्लेशः कथमाविर्भवति इति ननु भवता प्रष्टव्याः स्मः।
चन्दनदासः – आज्ञापयतु आर्यः।
चाणक्यः – राजनि अविरुद्धवृत्तिर्भव।
चन्दनदासः – आर्य! कः पुनरधन्यो राज्ञो विरुद्ध इति आर्येणावगम्यते?
चाणक्यः – भवानेव तावत् प्रथमम्।
चन्दनदासः – (कर्णौ पिधयद) शान्तं पापम्, शान्तं पापम्। कीदृशस्तृणानामग्निना सह विरोध:?
हिन्दी अनुवाद:-
चाणक्य – हे वत्स! रत्नकार (जौहरी) चन्दनदास को अभी देखना चाहता हूँ।
शिष्य – ठीक है (निकलकर चन्दनदास के साथ प्रवेश करके) इधर से सेठ जी इधर से (दोनों घूमते हैं)।
शिष्य – (पास जाकर) हे आचार्य ! यह है सेठ चन्दनदास ।
चन्दनदास – आर्य की जय हो ।
चाणक्य – हे सेठ ! स्वागत है तुम्हारा । क्या व्यापार की बढ़ोतरी हो रही है ?
चन्दनदास – ( मन-ही-मन ) अधिक आदर शंका के योग्य होता है। (स्पष्ट शब्दों में) और क्या। आर्य की कृपा से निर्बाध है मेरा व्यापार ।
चाणक्य – हे सेठ ! प्रसन्न जनों से उपकार का बदला चाहा करते हैं राजा लोग।
चन्दनदास – आज्ञा दीजिये आर्य ! क्या और कितना हमें आदेश किया जा रहा है ? ऐसा ।
चाणक्य – हे सेठ ! यह चन्द्रगुप्त का राज्य है नन्द का नहीं। नन्द के ही धन का सम्बन्ध प्रसन्नता उत्पन्न करता है । चन्द्रगुप्त के ( धन का सम्बन्ध तो) आपके लिए दुःख का अभाव ही है।
चन्दनदास – (हर्ष के साथ) आर्य! मैं अनुगृहीत हूँ।
चाणक्य – हे सेठ ! और वह क्लेश (दुःख) का अभाव कैसे उत्पन्न होता है ? हमें आपसे यही पूछना है।
चन्दनदास – आज्ञा दीजिए आर्य ।
चाणक्य – राजा के प्रति अनुकूल हो जाओ।
चन्दनदास – हे आर्य! कौन अभागा राजा के विरुद्ध है ? यह आर्य को ज्ञात है ?
चाणक्य – पहले तो आप ही हैं।
चन्दनदास – (दोनों कान बन्द करके) पाप शान्त हो, शान्त हो । घास-फूँस का अग्नि के साथ विरोध कैसा है ?
चाणक्यः – अयमीदृशो विरोध: यत् त्वमद्यापि राजापथ्यकारिणोऽमात्यराक्षसस्य गृहजनं स्वगृहे रक्षसि।
चन्दनदासः – आर्य! अलीकमेतत्। वेफनाप्यनार्येण आर्याय निवेदितम्।
चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन्! अलमाशक्या। भीताः पूर्वराजपुरुषाः पौराणामनिच्छतामपि गृहेषु गृहजनं निक्षिप्य देशान्तरं व्रजन्ति। ततस्तत्प्रच्छादनं दोषमुत्पादयति।
चन्दनदासः – एवं नु इदम्। तस्मिन् समये आसीदस्मद्गृहे अमात्यराक्षसस्य गृहजन इति।
चाणक्यः – पूर्वम् ‘अनृतम्’, इदानीम् आसीत्य् इति परस्परविरुद्धे वचने।
चन्दनदासः – आर्य! तस्मिन् समये आसीदस्मद्गृहे अमात्यराक्षसस्य गृहजन इति।
चाणक्यः – अथेदानीं क्व गतः?
चन्दनदासः – न जानामि।
चाणक्यः – कथं न ज्ञायते नाम ? भो श्रेष्ठिन्! शिरसि भयम्, अतिदूरं तत्प्रतिकारः।
चन्दनदासः – आर्य! किम् मे भयं दर्शयसि? सन्तमपि गेहे अमात्यराक्षसस्य गृहजनं न समर्पयामि, किम् पुनरसन्तम् ?
चाणक्यः – चन्दनदास! एष एव ते निश्चयः?
चन्दनदासः – बाढम्, एष एव मे निश्चयः।
चाणक्यः – (स्वगतम्) साधु! चन्दनदास साधु।
हिन्दी अनुवाद:-
चाणक्य – यह ऐसा विरोध है कि तुम आज भी राजा का अहित करने वाले अमात्य राक्षस के घर वालों को अपने घर में रखते हो।
चन्दनदास – आर्य! यह झूठ है। यह किसी दुष्ट ने आपको बताया है।
चाणक्य – हे सेठ! आशङ्का मत करो । डरे हुए पूर्वराजकर्मचारी नगरवासियों के चाहने पर भी घरों में घरवालों को रखकर दूसरे देश चले जाते हैं। फिर उन्हें छिपाना ही दोष को उत्पन्न करता है।
चन्दनदास – अच्छा ऐसा है । उस समय हमारे घर में अमात्य राक्षस के घर के लोग थे। ऐसा ।
चाणक्य – पहले ‘झूठ’, अब ‘थे’ ये परस्पर विरोधी बातें हैं।
चन्दनदास – आर्य! उसे समय हमारे घर में अमात्य राक्षस के घर वाले थे। ऐसा।
चाणक्य – और अब कहाँ चले गए ?
चन्दनदास – मैं नहीं जानता हूँ।
चाणक्य – क्यों नहीं जानते हैं ? हे सेठ! सिर पर भय है, (और) बहुत दूर प्रतिकार (प्रतिशोध, बदला) ।
चन्दनदास – आर्य! क्या मुझे भय दिखा रहे हैं ? अमात्य राक्षस के परिजनों के मेरे घर में होने पर भी नहीं देता तो (उनके) न होने पर क्या (दे सकता हूँ) ?
चाणक्य – चन्दनदास! क्या यही तुम्हारा निश्चय है ?
चन्दनदास – हाँ, यही मेरा निश्चय है।
चाणक्य – (मन-ही-मन) अच्छा है। चन्दनदास, अच्छा है।
सुलभेष्वर्थलाभेषु परसंवेदने जने। इदं दुष्करं कुर्यादिदानीं शिविना विना।।
हिन्दी अनुवाद:- दूसरों की वस्तु को समर्पित करने पर बहुत धन प्राप्त होने की स्थिति में भी दूसरों की वस्तु की सुरक्षा रूपी कठिन कार्य को एक शिवि को छोड़कर तुम्हारे अलावा दूसरा कौन कर सकता है ?
भावार्थ:- इस श्लोक के द्वारा महाकवि विशाखदत्त ने बड़े ही संक्षिप्त शब्दों में चन्दनदास के गुणों का वर्णन किया है। इसमें कवि ने कहा है कि दूसरों की वस्तु की रक्षा करनी कठिन होती है। यहाँ चन्दनदास के द्वारा अमात्य राक्षस के परिवार की रक्षा का कठिन काम किया गया है। न्यासरक्षण को महाकवि भास ने भी दुष्कर कायर्स मानते हुए स्वप्नवासवदत्तम् में कहा है- दुष्करं न्यासरक्षणम् ।
चन्दनदास अगर अमात्य राक्षस के परिवार को राजा को समर्पित कर देता, तो राजा उससे प्रसन्न भी होता और बहुत-सा धन पारितोषिक के रूप में देता, पर उसने भौतिक लाभ व लोभ को दरकिनार करते हुए अपने प्राणप्रिय मित्र के परिवार की रक्षा को अपना कर्तव्य माना और इसे निभाया भी। कवि ने चन्दनदास के इस कार्य की तुलना राजा शिवि के कार्यों से की है जिन्होंने अपने शरणागत कपोत की रक्षा के लिए अपने शरीर के अंगों को काटकर दे दिया था। राजा शिवि ने तो सत्ययुग में ऐसा किया था, पर चन्दनदास ने ऐसा कार्य इस कलियुग में किया है, इसलिए वे और अधिक प्रशंसा के पात्र हैं।
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