पाठ-1
माता का अँचल
आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध साहित्यकार शिवपूजन सहाय का जन्म 1893 ई. में उनवाँस गाँव जिला भोजपुर (बिहार) में हुआ था। उनके बचपन का नाम भोलानाथ था। दसवी के परीक्षा के बाद उन्होंने बनारस की अदालत में नौकरी की उसके बाद वे अध्यापक कार्य में लग गए। यही सब कार्यो को करने के लिए इन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी।
इन्होंने जागरण, हिमालय, माधुरी बालक आदि पत्रिकाओं का संपादन किया। उनकी प्रमुख कृतियाँ-देहाती दुनिया, वे दिन वे लोग, ग्राम सुधार, स्मृतिशेष आदि हैं। उन्होंने शोषण के प्रति आवाज उठाई है। शिवपूजन सहाय का निधन वर्ष 1963 में हुआ था।
पाठ परिचय- प्रस्तुत पाठ शिवपूजन सहाय की उपन्यास ‘देहाती दुनिया‘ से ली गई है, जिसमें ग्रामीण संस्कृति के बारे में बताया गया है। इस पाठ में भोलानाथ के चरित्र के माध्यम से माता-पिता के प्यार और दुलार, बालकों के विभिन्न ग्रामीण खेल, लोकगीत, बच्चों की मस्ती और शैतानियों का वर्णन विस्तार से किया गया है। इसमें यह बताया गया है कि भले बच्चे अपने बाप के पास अधिक समय बिताए, लेकिन परेशानी के समय उसे माँ का आँचल ही शांति देता है।
पाठ का सारांश
लेखक का नाम ‘तारकेश्वर’ था, लेकिन पिताजी उसे लाड़-प्यार से ‘भोलानाथ‘ कहते थे। भोलानाथ का अपने माँ के साथ सिर्फ खाना खाने और दूध पिने तक का ही नाता था। वह अपने पिता के साथ ही बाहर की बैठक में सोया करता था। वह जब सुबह उठता तो उसे उसके पिता ही नहला धूलाकर पूजा पाठ पर बैठाते थें। कभी-कभी बाबूजी और भोलानाथ के बीच कुश्ती भी होती। पिताजी पीठ के बल लेट जाते और भोलानाथ उनके छाती पर चढ़कर उनके मूछें उखाड़ने लगता, तो पिताजी हँसकर अपनी मूछों को छुड़ाकर उसे चुम लेते थे। भोलानाथ को उसके पिताजी एक धातु के कटोरें में दूध और भात सानकर अपने हाथों से खिलाते थे।
जब भोलानाथ का पेट भर जाता था तो उसके बाद भी माँ उसे अलग-अलग पक्षीयों का नाम जैसे तोता, मैना, कबुतर, हंस, मोर आदि के बनावटी नाम से कौर बनाकर खिलाती थी। माँ कहती थी कि जल्दी खा लो नहीं तो उड़ ये सभी पक्षीयाँ उड़ जाएगी। तब भोलानाथ बनावटी पक्षियों को चट कर जाता था।
भोलानाथ घर पर बच्चे तरह-तरह के नाटक खेला करते थे, जिसमें चबुतरे के एक कोने को नाटक घर की तरह प्रयोग किया जाता था। बाबूजी की नहाने की छोटी चौकी को रंगमंच बनाया जाता था। उसी पर मिठाइयों की दुकान, चिलम के खोंचे पर कपड़े के थालों में ढेले के लड्डू, पŸां की पूरी-कचौरियाँ, गीली मिट्टी के जलेबी, फूटे घड़े के टूकड़ों के बताशे आदि मिठाइयाँ सजाई जाती थी। दूकानदार और खरीदार सभी बच्चे होते थे। थोड़ी देर में मिठाई की दूकान हटाकर बच्चे दातून के खंभे से घरौंदा बनाते थे। उसे घरौंदा पर धूल की मेड़ से दीवार और तिनकों के छप्पर होते थे। इसी प्रकार बच्चे अन्य समानों से दावत तैयार करते थे।
जब सभी एक पंक्ति में बैठ जाते, तो बाबूजी भी उसी पंक्ति में आकर बैठ जाते थे। उनको बैठते देख सभी बच्चे घरौंदा बिगाड़कर भाग जाते थे।
कभी-कभी बच्चे बारात का जुलूस निकालते थे। जब बारात वापस लौट आने पर बाबूजी ज्योंहि दुल्हन का मुखौटा देखने जाते थे, त्यों ही बच्चे हँसकर भाग जाते थे।
थोड़ी देर बार बच्चों की मंडली खेती करने में जुट जाती थी। इनका फसल बहुत जल्दी तैयार भी हो जाता था। बड़ी मेहनत से खेत बोये और पटाए जाते थे। तुरंत ही फसल काटकर उसे पैरों से रौंद देते थे। इसी बीच जब बाबूजी बच्चों से पूछते थे कि इस बार फसल कैसी रही ? तब बच्चे खेत-खलिहान छोड़कर भाग जाते थे।
आम के फसल के समय खुब आँधी आती थी। आँधी समाप्त होते ही बच्चे आम के लिए बाग में दौड़ पड़ते थे। एक दिन आँधी आने पर आकाश काले बादलों से ढ़क गया। डर के मारे बच्चे भागने लग। इसी बीच रास्ते में गुरू मूसन तिवारी मिल गए। बच्चों की झूंड में एक ढीठ लड़का बैजू मूसन तिवारी को चिढ़ाते हुए बोला- ‘बुढ़वा मेइमान माँगे करैला का चोखा‘ शेष बच्चों ने बैजू के सूर में सूर मिलाकर यहीं चिल्लाने लगा।
तिवारी जी ने पाठशाला जाकर वहाँ से बैजू और भोलानाथ को पकड़ लाने के लिए चार लड़कों को भेजा। बैजू तो नौ दो ग्यारह हो गया और भोलानाथ पकड़ा गया। गुरु जी ने उसकी खुब पिटाई की। बाबूजी ने जब यह हाल सुना, तो पाठशाला जाकर भोलानाथ को अपने गोद में उठाकर पुचकारा। वह गुरुजी का खुशामद करके भोलानाथ को अपने साथ घर ले आए। रास्ते में बहुत बच्चे नाचते गाते बच्चों को देखकर भोलानाथ अपने पिता की गोद से उतरकर अपना रोना-धोना भूलाकर बच्चों की मंडली में शामिल होकर सुर में सुर मिलाने गया।
एक समय एक टिले पर जाकर बच्चे चूहों के बिल में पानी डालने लग। कुछ ही देर में जब सब थक गए। तब तक बिल में से एक साँप निकल आया, जिसे देखकर रोते-चिल्लाते बच्चे बेतहाशा भागे। भोलानाथ का सारा शरीर लहूलुहान हो गई। पैरों के तलवे काँटों से छलनी हो गए थे। वह दौड़ता हुआ आया और सीधे घर में घुस गया। बाबूजी कमरे में हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। उन्होंने भोलानाथ को बहुत पुकारा, लेकिन भोलानाथ ने उनकी आवाज अनसुनी करके माँ के पास जाकर उसके आँचल में छिप गया।
भोलानाथ के काँपते देखकर माँ जोर से रोने लगी और सब काम छोड़ बैठी। तुरंत हल्दी पीसकर भोलानाथ के घावों पर लेप लगाई। भोलानाथ इतना डर गया था कि उससे साँप तक नहीं कहा जा रहा था। भोलेनाथ की स्थिति देखकर माँ का चिंता से बुरा हाल हो गया था। इसी बीच बाबूजी ने आकर भोलानाथ को अपने गोद में लेना चाहा, लेकिन भोलानाथ माँ के आँचल को नहीं छोड़ा।
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