सप्तमः पाठः
सौहार्दं प्रकृतेः शोभा
अयं पाठः परस्परं स्नेहसौहार्दपूर्णः व्यवहारः स्यादिति बोध्यति। सम्प्रति वयं पश्यामः यत् समाजे जनाः आत्माभिमानिनः सञ्जाताः, ते परस्परं तिरस्वुफर्वन्ति। स्वार्थपूरणे संलग्नाः ते परेषां कल्याणविषये नैव किमपि चिन्तयन्ति । तेषां जीवनोद्देश्यम् अधुना इदं सञ्जातम् ”नीचैरनीचैरतिनीचनीचैः सर्वैः उपायैः फलमेव साध्यम् ”
अतः समाजे पारस्परिकस्नेहसंवर्धानाय अस्मिन् पाठे पशुपक्षिणां माध्यमेन समाजे व्यवहृतम् आत्माभिमानं दर्शयन्, प्रकृतिमातुः माध्यमेन अन्ते निष्कर्षः स्थापितः यत् कालानुगुणं सर्वेषां महत्त्वं भवति, सर्वे अन्योन्याश्रिताः सन्ति। अतः अस्माभिः स्वकल्याणाय परस्परं स्नेहेन मैत्रापूर्णव्यवहारेण च भाव्यम्।
पाठ परिचय– आजकल हम यत्र-तत्र सर्वत्र देखते हैं कि समाज में प्रायः सभी स्वयं को श्रेष्ठ समझते हुए परस्पर एक दूसरे का तिरस्कार कर रहे हैं। सामान्यतः पारस्परिक व्यवहार में दूसरों के कल्याण के विषय में तो सोच ही नहीं रह गई। सभी स्वार्थ साधना में ही लगे हुए हैं और ऐसे लोगों के लिए जीवन का उद्देश्य यही बन गया है कि- “नीचैरनीचैरतिनीचनीचैः सर्वै: उपायैः फलमेव साध्यम्। ” अतः समाज में मेल-जोल बढ़ाने की दृष्टि से इस पाठ में पशु-पक्षियों के माध्यम से समाज में स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ दिखाने के प्रयास को दिखाते हुए प्रकृति माता के माध्यम से अन्त में यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि सभी का यथासमय अपना-अपना महत्त्व है तथा सभी एक दूसरे पर आश्रित हैं। अतः हमें परस्पर विवाद करते हुए नहीं अपितु मिल-जुलकर रहना चाहिए, तभी हमारा कल्याण संभव है।
वनस्य दृश्यं समीपे एवैका नदी वहति। एकः सिंहः सुखेन विश्राम्यति, तदैव एकः वानरः आगत्य तस्य पुच्छं धुनाति। क्रुद्ध: सिंहः तं प्रहर्तुमिच्छति परं वानरस्तु वूफर्दित्वा वृक्षमारूढः। तदैव अन्यस्मात् वृक्षात् अपरः वानरः सिंहस्य कर्णमावृफष्य पुनः वृक्षोपरि आरोहति। एवमेव वानराः वारं वारं सिंहं तुदन्ति। क्रुद्ध: सिंहः इतस्ततः धवति, गर्जति परं किमपि कर्तुमसमर्थः एव तिष्ठति।
वानराः हसन्ति वृक्षोपरि च विविधः पक्षिणः अपि सिंहस्य एतादृशीं दशां दृष्ट्वा हर्षमिश्रितं कलरवं कुर्वन्ति। निद्राभग्डदु:खेन वनराजः सन्नपि तुच्छजीवैः आत्मनः एतादृश्या दुरवस्थया श्रान्तः सर्वजन्तून् दृष्ट्वा पृच्छति-
प्रसङ्गः- प्रस्तुत गद्यांश संस्कृत विषय की पाठ्य-पुस्तक “शेमुषी” (द्वितीयो भागः) में संकलित पाठ ‘सौहार्द प्रकृतेः शोभा’ से अवतरित है। इस पाठ में पशु-पक्षियों की कथा के माध्यम से समाज में मेल-जोल की भावना को बढ़ाने का संदेश दिया गया है।
व्याख्या:- (वन के दृश्य के समीप ही एक नदी भी बहती है।) एक सिंह सुखपूर्वक विश्राम कर रहा है, तभी एक बन्दर आकर उसकी पूँछ पकड़कर घुमा देता है। क्रोधित सिंह उसे मारना चाहता है, परन्तु बन्दर तो कूदकर वृक्ष पर चढ़ जाता है। तभी किसी दूसरे वृक्ष से कोई अन्य वन्दर सिंह का कान खींचकर पुनः वृक्ष पर चढ़ जाता है। ऐसे ही बन्दर बार-बार सिंह को तंग करते हैं। क्रोधित सिंह इधर-उधर भागता है, गर्जता है, परन्तु कुछ भी कर पाने में असमर्थ होने के कारण बैठ जाता है।
वानर हँसते हैं तथा वृक्ष के ऊपर (बैठे) अनेक पक्षी भी सिंह की ऐसी दशा देखकर प्रसन्नतायुक्त चहचहाहट करते हैं। नींद खुल जाने से दुःखी, जंगल का राजा होते हुए भी तुच्छ जीवों के कारण हुई अपनी ऐसी बुरी दशा में थका हुआ सिंह सभी प्राणियों को देखकर पूछता है-
सिंहः – (क्रोधेन गर्जन्) भोः! अहं वनराजः, किं भयं न जायते? किमर्थं मामेवं तुदन्ति सर्वे मिलित्वा ?
व्याख्या:- सिंह – (क्रोध से गर्जते हुए) अरे ! मैं वनराज अर्थात् जंगल का राजा हूँ, क्या भय उत्पन्न नहीं होता ? किस कारण सारे मिलकर मुझे तंग कर रहे हो ?
एकः वानरः – यतः त्वं वनराजः भवितुं तु सर्वथाऽयोग्यः। राजा तु रक्षकः भवति परं भवान् तु भक्षकः। अपि च स्वरक्षायामपि समर्थः नासि, तर्हि कथमस्मान् रक्षिष्यसि?
व्याख्या:- एक बन्दर – क्योंकि तुम जंगल का राजा होने में पूरी तरह से अयोग्य हो । राजा तो रक्षा करने वाला होता है, लेकिन आप तो भक्षण करने वाले हैं। साथ ही यदि (तुम) अपनी रक्षा करने में भी समर्थ नहीं हो तो कैसे हम सबकी रक्षा करोगे ?
अन्यः वानरः – किं न श्रुता त्वया पञ्चतन्त्रोक्तिः –
यो न रक्षति वित्रास्तान् पीड्यमाना परैः सदा।
जन्तून् पार्थिवरूपेण स वृफतान्तो न संशयः।।
व्याख्या:- अन्य बन्दर – क्या तुमने पञ्चतंत्र का कथन नहीं सुना है-
जो विशेष रूप से डरे हुओं की अथवा दूसरों के द्वारा सताए हुओं की सदैव रक्षा नहीं कर सकता वह जीव के रूप में सबका अन्त करने वाला यमराज है, इसमें सन्देह नहीं है। अर्थात् जो राजा प्रजा की रक्षा नहीं कर सकता, वह रक्षक नहीं बल्कि भक्षक के समान होता है।
काकः – आम् सत्यं कथितं त्वया- वस्तुतः वनराजः भवितुं तु अहमेव योग्यः।
व्याख्या:- कौआ – हाँ, तुमने सत्य कहा है। वास्तव में जंगल का राजा होने योग्य तो मैं ही हूँ ।
पिकः – (उपहसन्) कथं त्वं योग्यः वनराजः भवितुं, यत्र तत्र का-का इति कर्कशध्वनिना वातावरणमाकुलीकरोषि। न रूपम्, न ध्वनिरस्ति। वृफष्णवर्णम् मेध्यामेध्यभक्षकं त्वां कथं वनराजं मन्यामहे वयम् ?
व्याख्या:- कोयल- (हँसती हुई) तुम कैसे योग्य वनराज हो सकते हो ? जहाँ-तहाँ काँव-काँव की रूखी (कानों को अप्रिय) आवाज़ से वातावरण को व्याकुल कर देते हो । न तो सुंदरता है, न आवाज़ है। काले रंग वाले, पवित्र – अपवित्र सब कुछ खाने वाले तुमको हम लोग कैसे जंगल का राजा मान लें ?
काकः – अरे! अरे! किं जल्पसि? यदि अहं कृष्णवर्णः तर्हि त्वं किं गौराड्.ग ? अपि च विस्मर्यते किं यत् मम सत्यप्रियता तु जनानां कृते उदाहरणस्वरूपा- ‘अनृतं वदसि चेत् काकः दशेत्’- इति प्रकारेण। अस्माकं परिश्रमः ऐक्यं च विश्वप्रथितम्। अपि च काकचेष्टः विद्यार्थी एव आदर्शच्छात्राः मन्यते।
व्याख्या:- कौआ- अरे ! अरे ! क्या बोल रही हो ? यदि मैं काले रंग का हूँ तो तुम क्या गोरे अंग वाली हो ? अर्थात् मैं काला हूँ तो तुम भी काली हो। और क्या तुम भूल गई हो कि मेरी सत्यप्रियता तो लोगों के लिए उदाहरण के समान है – “झूठ बोले कौआ काटे” इस प्रकार से | हमारा परिश्रम और एकता संसार में प्रसिद्ध है तथा कौए के समान चेष्टा रखने वाले विद्यार्थी को ही आदर्श छात्र मानते हैं।
पिकः – अलम् अलम् अतिविकत्थनेन। किं विस्मर्यते यत्- काकः कृष्णः पिकः कृष्णः को भेदः पिककाकयोः। वसन्तसमये प्राप्ते काकः काकः पिकः पिकः।।
व्याख्या:- कोयल – रुको, डींगें मारने से रुको। क्या भूल गए हो कि कौआ काला होता है, कोयल भी काली होती है; कौए और कोयल में क्या भेद है । वसन्त ऋतु आने पर कौआ कौआ हो जाता है तथा कोयल कोयल हो जाती है। अर्थात् दोनों का रंग एक जैसा होने पर भी इनकी आवाज़ से दोनों की पहचान हो जाती है।
काकः – रे परभृत्! अहं यदि तव संततिं न पालयामि तर्हि कुत्र स्युः पिकाः? अतः अहम् एव करफणापरः पक्षिसम्राट् काकः।
व्याख्या:- कौआ- हे कोयल ! अगर मैं तुम्हारी सन्तान का पालन न करूं तो कोयल कहाँ रहेंगी ? अतः मैं करुणावान कौआ ही पक्षियों का सम्राट हूँ।
गजः – समीपतः एवागच्छन् अरे! अरे! सर्व सम्भाषणं श्रृण्वन्नेवाहम् अत्रागच्छम्। अहं विशालकायः, बलशाली, पराक्रमी च। सिंहः वा स्यात् अथवा अन्यः कोऽपि, वन्यपशून् तु तुदन्तं जन्तुमहं स्वशुण्डेन पोथयित्वा मारयिष्यामि। किमन्यः कोऽप्यस्ति एतादृशः पराक्रमी। अतः अहमेव योग्यः वनराजपदाय।
व्याख्या:- हाथी – ( नजदीक से ही आते हुए) अरे ! अरे ! सबकी बातें सुनकर ही मैं यहाँ आया हूँ। मैं विशालकाय, शक्तिशाली और पराक्रमी हूँ। सिंह हो या अन्य कोई भी हो। जंगली जानवर को पीड़ित करने वाले जन्तु को मैं अपनी सूँड से पटक-पटक कर मार डालूँगा । क्या अन्य कोई भी ऐसा पराक्रमी है अर्थात् कोई भी मेरे समान पराक्रमी नहीं है । अत: मैं ही वनराज पद के योग्य हूँ।
वानरः – अरे! अरे! एवं वा (शीघ्रमेव गजस्यापि पुच्छं विधूय वृक्षोपरि आरोहति)
व्याख्या:- बन्दर – अरे ! अरे ! ऐसा है (शीघ्र ही हाथी की भी पूँछ खींचकर पेड़ पर चढ़ जाता है।)
(गजः तं वृक्षमेव स्वशुण्डेन आलोडयितुमिच्छति परं वानरस्तु कूर्दित्वा अन्यं वृक्षमारोहति। एवं गजं वृक्षात् वृक्षं प्रति धवन्तं दृष्ट्वा सिंहः अपि हसति वदति च ।)
व्याख्या:- (हाथी उस वृक्ष को ही अपनी सूँड से हिलाना चाहता है परन्तु बन्दर कूद कर किसी अन्य वृक्ष पर चढ़ जाता है। इस तरह हाथी को एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष की तरफ दौड़ता हुआ देखकर सिंह भी हँसता है और बोलता है ।)
सिंहः – भोः गज! मामप्येवमेवातुदन् एते वानराः।
व्याख्या:- सिंह- हे हाथी ! ये बंदर मुझे भी ऐसे ही पीड़ित कर रहे थे।
वानरः – एतस्मादेव तु कथयामि यदहमेव योग्यः वनराजपदाय येन विशालकायं पराक्रमिणं, भयंकरं चापि सिहं गजं वा पराजेतुं समर्था अस्माकं जातिः। अतः वन्यजन्तूनां रक्षायै वयमेव क्षमाः।
(एतत्सर्वं श्रुत्वा नदीमध्यस्थितः एकः बकः)
व्याख्या:- बन्दर – इसी कारण तो मैं कह रहा हूँ कि मैं ही वनराज पद के योग्य हूँ क्योंकि विशालकाय, पराक्रमी और डरावने सिंह एवं हाथी को पराजित करने में समर्थ हमारी जाति ही है। अतः जंगल के प्राणियों की रक्षा के लिए हम (लोग) ही समर्थ हैं।
[यह सब सुनकर नदी के बीच में से एक बगुला (बोला ) ]
बकः – अरे! अरे! मां विहाय कथमन्यः कोऽपि राजा भवितुमर्हति। अहं तु शीतले जले बहुकालपर्यन्तम् अविचलः ध्यानमग्नः स्थितप्रज्ञ इव स्थित्वा सर्वेषां रक्षायाः उपायान् चिन्तयिष्यामि, योजनां निर्मीय च स्वसभायां विविधपदमलंकुर्वाणैः जन्तुभिश्च मिलित्वा रक्षोपायान् क्रियान्वितान् कारयिष्यामि, अतः अहमेव वनराजपदप्राप्तये योग्यः।
व्याख्या:- बगुला- अरे ! अरे ! मुझे छोड़कर कैसे अन्य कोई भी राजा हो सकता है। मैं तो शीतल जल में बहुत समय तक स्थिर, ध्यानमग्न, हर प्रकार के भ्रमों से मुक्त या सन्तुष्ट होने के समान स्थित होकर सभी की रक्षा के उपायों के विषय में चिन्तन करूँगा तथा योजना बनाकर अपनी सभा में विभिन्न पदों को सुशोभित करने वाले जीवों से मिलकर सुरक्षा के उपायों को क्रियान्वित कराऊँगा, इसलिए मैं ही वनराज का पद प्राप्त करने के योग्य हूँ।
मयूरः – (वृक्षोपरितः-अट्टहासपूर्वकम्) विरम विरम आत्मश्लाघायाः किं न जानासि यत्-
यदि न स्यान्नरपतिः सम्यघ्नेता ततः प्रजा।
अकर्णधरा जलधौ विप्लवेतेह नौरिव।।
को न जानाति तव ध्यानावस्थाम्। ‘स्थितप्रज्ञ’ इति व्याजेन वराकान् मीनान् छलेन अध्गिह्य क्रूरतया भक्षयसि। धिक् त्वाम्। तव कारणात् तु सर्वं पक्षिकुलमेवावमानितं जातम्।
व्याख्या:- मयूर – ( वृक्ष के चारों तरफ ठहाका मारते हुए) डींगे मारने से रुको-रुको, क्या नहीं जानते कि – यदि संसार में राजा सुयोग्य नायक नहीं है तो उसकी प्रजा उसी प्रकार डूब जाती है अथवा विनष्ट हो जाती है जैसे बिना नाविक के समुद्र में चलने वाली नाव डूब जाती है। अर्थात् प्रजा के हित के लिए राजा का सुयोग्य होना आवश्यक है।
कौन नहीं जानता तुम्हारी ध्यान की अवस्था को अर्थात् सबको ज्ञात है। ‘स्थितप्रज्ञ’ इस बहाने से बेचारी मछलियों को छल से पकड़कर निर्दयतापूर्वक खा जाते हो। तुम्हें धिक्कार है । तुम्हारे कारण तो सारा पक्षियों का कुल ही कलंकित हो गया है।
वानरः – (सगर्वम्) अत एव कथयामि यत् अहमेव योग्यः वनराजपदाय। शीघ्रमेव मम राज्याभिषेकाय तत्पराः भवन्तु सर्वे वन्यजीवाः।
व्याख्या:- वानर – (गर्व के साथ) इसलिए तो कह रहा हूँ कि मैं ही वनराज पद के लिए सुयोग्य हूँ। वन के सभी प्राणी शीघ्र ही मेरे राज्याभिषेक के लिए तैयार हो जाएँ ।
मयूरः – अरे वानर! तूष्णीं भव। कथं त्वं योग्यः वनराजपदाय? पश्यतु पश्यतु मम शिरसि राजमुकुटमिव शिखां स्थापयता विधत्रा एवाहं पक्षिराजः वृफतः, अतः वने निवसन्तं मां वनराजरूपेणापि द्रष्टुं सज्जाः भवन्तु अधुना। यतः कथं कोऽप्यन्यः विधतुः निर्णयम् अन्यथाकर्तुं क्षमः।
व्याख्या:- मयूर – अरे बन्दर! चुप हो जाओ। किस प्रकार तुम ‘वनराज’ पद के योग्य हो ? देखो-देखो, मेरे सिर पर राज मुकुट के समान शिखा बनाकर विधाता ने ही मुझे पक्षीराज बनाया है। इसलिए वन में निवास करने वालो, मुझे वनराज के रूप में देखने के लिए तैयार हो जाओ। अब इस समय कोई भी कैसे विधाता के फैसले की अवहेलना करने में समर्थ है।
काकः – (सव्यड्ग्यम्) अरे अहिभुक्। नृत्यातिरिक्तं का तव विशेषता यत् त्वां वनराजपदाय योग्यं मन्यामहे वयम्।
व्याख्या:- कौआ – ( व्यंग्य के साथ) अरे सर्पभक्षी ! नाचने के अलावा तुम्हारी क्या विशेषता है कि तुम्हें हम लोग वनराज के पद के योग्य मानें।
मयूरः – यतः मम नृत्यं तु प्रवृफतेः आराधाना। पश्य! पश्य! मम पिच्छानामपूर्वं सौंदर्यम् (पिच्छानुद्घाट्य नृत्यमुद्रायां स्थितः सन्) न कोऽपि त्रौलोक्ये मत्सदृशः सुन्दरः। वन्यजन्तूनामुपरि आक्रमणं कर्तारं तु अहं स्वसौन्दर्येण नृत्येन च आकर्षितं कृत्वा वनात् बहिष्करिष्यामि। अतः अहमेव योग्यः वनराजपदाय।
व्याख्या:- मयूर – क्योंकि मेरा नृत्य तो प्रकृति की पूजा है। देखो ! देखो ! मेरे (शरीर के) पिछले भाग का अद्भुत सौंदर्य। (अपने शरीर के पिछले भाग को फैलाकर नृत्य की मुद्रा में स्थित होकर) तीनों लोकों में कोई भी मेरे समान सुन्दर नहीं है। वन्य प्राणियों पर आक्रमण करने वाले को तो मैं अपनी सुन्दरता और नृत्य से आकर्षित करके वन से बाहर निकाल दूँगा। अतः मैं ही वनराज पद के योग्य हूँ।
(एतस्मिन्नेव काले व्याघ्रचित्राकौ अपि नदीजलं पातुमागतौ एतं विवादं शृणुतः वदतः च)
व्याख्या:- व्याख्या:- (उसी समय बाघ और चीता भी नदी का पानी पीने के लिए आने पर इनका विवाद सुनते हैं और कहते हैं)
व्याघ्रचित्रकौ – अरे किं वनराजपदाय सुपात्रं चीयते ?
एतदर्थ तु आवामेव योग्यौ। यस्य कस्यापि चयनं कुर्वन्तु सर्वसम्मत्या।
व्याख्या:- बाघ और चीता- अरे! क्या ‘वनराज’ पद के लिए सुयोग्य पात्र का चयन हो रहा है ? इस कार्य के लिए तो हम दोनों ही योग्य हैं। जिस किसी का भी चयन किया जाए सबकी सहमति से होना चाहिए।
सिंहः – तूष्णीं भव भोः। युवामपि मत्सदृशौ भक्षकौ न तु रक्षकौ। एते वन्यजीवाः भक्षकं रक्षकपदयोग्यं न मन्यन्ते अत एव विचारविमर्शः प्रचलति।
व्याख्या:- सिंह- हे चुप हो जाओ। तुम दोनों भी मेरे समान भक्षक हो, न कि रक्षक। वे सभी वन्य प्राणी भक्षक को रक्षक के पद के योग्य नहीं मानते हैं। इसलिए विचार-विमर्श चल रहा है।
बकः – सर्वथा सम्यगुक्तम् सिंहमहोदयेन। वस्तुतः एव सिंहेन बहुकालपर्यन्तं शासनं कृतम् परमधुना तु कोऽपि पक्षी एव राजेति निश्चेतव्यम् अत्रा तु संशीतिलेशस्यापि अवकाशः एव नास्ति।
व्याख्या:- बगुला- सिंह महोदय ने बिल्कुल उचित बात कही है। वास्तव में सिंह ने बहुत समय तक राज किया, परन्तु अब तो कोई पक्षी ही राजा हो ऐसा निश्चय किया गया है, इसमें जरा भी सन्देह का अवसर नहीं है।
सर्वे पक्षिणः – (उच्चैः)- आम् आम्- कश्चित् खगः एव वनराजः भविष्यति इति।
व्याख्या:- सभी पक्षी- (ऊँचे आवाज़ में) हाँ, हाँ- कोई पक्षी ही ‘वनराज’ होगा।
(परं कश्चिदपि खगः आत्मानं विना नान्यं कमपि अस्मै पदाय योग्यं चिन्तयन्ति तर्हि कथं निर्णयःभवेत् तदा तैः सर्वैः गहननिद्रायां निश्चिन्तं स्वपन्तम् उलूकं वीक्ष्य विचारितम् यदेषः आत्मश्लाघाहीनः पदनिर्लिप्तः उलूक एवास्माकं राजा भविष्यति। परस्परमादिशन्ति च तदानीयन्तां नृपाभिषेकसम्बन्धित सम्भाराः इति।)
व्याख्या:- (परन्तु कोई भी पक्षी अपने सिवा किसी भी अन्य पक्षी को इस पद के योग्य मानता ही नहीं तो कैसे निर्णय होगा । तब वे सभी गहरी नींद में निश्चिंत होकर सोए हुए उल्लू को देखकर विचार करते हैं कि आत्म प्रशंसा से रहित पद की इच्छा से मुक्त उल्लू ही हमारा राजा होगा। और फिर आपस में एक-दूसरे को राजा के अभिषेक से संबंधित सामग्रियाँ लाने का आदेश देते हैं।)
सर्वे पक्षिणः सज्जायै गन्तुमिच्छन्ति तर्हि सहसा एव-
व्याख्या:- सभी पक्षी तैयारी करने के लिए जाना चाहते हैं तो अचानक ही-
काकः – (अट्टहासपूर्णेन-स्वेरण) -सर्वथा अयुक्तमेतत् यन्मयूर- हंस- कोकिल- चक्रवाक-शुक-सारसादिषु पक्षिप्रधनेषु विद्यमानेषु दिवान्ध्स्यास्य करालवक्त्रास्याभिषेकार्थं सर्वे सज्जाः। पूर्ण दिनं यावत् निद्रायमाणः एषः कथमस्मान् रक्षिष्यति। वस्तुतस्तु-
स्वभावरौद्रमत्युग्रं क्रूरमप्रियवादिनम्।
उलूकं नृपतिं कृत्वा का नु सद्धिर्भविष्यति।।
(ततः प्रविशति प्रवृफतिमाता)
व्याख्या:- कौआ- (ठहाका मारने वाले आवाज़ में) यह पूर्णतया अनुचित है कि मोर, हंस, कोयल, चक्रवाक, तोता, सारस आदि प्रधान पक्षियों के विद्यमान रहते हुए भी दिन में ही अंधा बने हुए, भयंकर मुख वाले (उल्लू) के अभिषेक के लिए सभी तैयार हैं। पूरा दिन जो नींद में डूबा रहता है, वह कैसे हमारी रक्षा करेगा। वस्तुतः स्वभाव से क्रोधी, अत्यधिक डरावने, क्रूर एवं अप्रिय बोलने वाले उल्लू को राजा बनाकर हमारी किस बात की सिद्धि होगी अर्थात् हमारा कौन सा कार्य सिद्ध होगा ।
(सस्नेहम्) भोः भोः प्राणिनः। यूयम् सर्वे एव मे सन्ततयः। कथं मिथः कलहं कुरूथ । वस्तुतः सर्वे वन्यजीविनः अन्योन्याश्रिताः। सदैव स्मरत-
ददाति प्रतिगृह्ण्ति, गुह्यमाख्याति पृच्छति।
भुडक्ते भोजयते चैव षड्-विधं प्रीतिलक्षणम्।।
(सर्वे प्राणिनः समवेतस्वरेण)
मातः! कथयति तु भवती सर्वथा सम्यक् परं
वयं भवतीं न जानीमः। भवत्याः परिचयः कः?
व्याख्या:- व्याख्या:- (स्नेह के साथ) हे हे प्राणियो ! तुम सभी मेरी सन्तान हो । क्यों आपस में झगड़ा कर रहे हो ? वास्तव में सभी वन्य प्राणी एक दूसरे पर आश्रित हैं । हमेशा याद रखो-
प्रीति के छह लक्षण बताए गए हैं- देता है, ग्रहण करता है, रहस्य बताता है, पूछता है, उपभोग करता है तथा जोड़ता या मिलाता है। अर्थात् इन छह कार्यों के करने से परस्पर प्यार में वृद्धि होती है।
(सभी प्राणी सामूहिक स्वर में )
हे माँ ! आप सर्वथा उचित कर रही हैं परन्तु हम सब आपको नहीं जानते हैं। आपका परिचय क्या है ?
प्रवृफतिमाता – अहं प्रवृफतिः युष्माकं सर्वेषां
जननी? यूयं सर्वे एव मे प्रियाः। सर्वेषामेव
मत्वृफते महत्त्वं विद्यते यथासमयम् न तावत्
कलहेन समयं वृथा यापयन्तु अपि तु मिलित्वा
एव मोदध्वं जीवनं च रसमयं कुरफध्वम्। तद्यथा कथितम्-
प्रजासुखे सुखं राज्ञः, प्रजानां च हिते हितम्।
नात्मप्रियं हितं राज्ञः, प्रजानां तु प्रियं हितम्।।
व्याख्या:- प्रकृति माता- मैं प्रकृति, तुम सबकी माता हूँ। तुम सभी मेरे लिए प्रिय हो। तुम सभी का मेरे लिए समय के अनुसार महत्त्व है। इसलिए कलह करने में समय व्यर्थ मत करो अपितु आपस में मिलकर प्रसन्न हो जाओ और जीवन को आनन्दमय करो। जैसा कि कहा गया है-
प्रजा के
सुख में ही राजा का सुख है तथा प्रजा के हित में ही ( राजा का) हित है। राजा के लिए अपना हित प्रिय नहीं, (बल्कि ) प्रजा का हित प्रिय है।
अपि च-
अगाधजलसञ्चारी न गर्वं याति रोहितः।
अघ्गुष्ठोदकमात्रोण शपफरी पुफर्पुफरायते।।
अतः भवन्तः सर्वेऽपि शपफरीवत् एवैफकस्य गुणस्य चर्चा विहाय, मिलित्वा प्रवृफतिसौन्दर्याय वनरक्षायै च प्रयतन्ताम् ।
सर्वे प्रवृफतिमातरं प्रणमन्ति मिलित्वा दृढसंकल्पपूर्वकं च गायन्ति-
प्राणिनां जायते हानिः परस्परविवादतः।
अन्योन्यसहयोगेन लाभस्तेषां प्रजायते।।
व्याख्या:- और भी-
अथाह जल की धारा में संचरण करने ( चलने वाली रोहित (रोहू) नामक बड़ी मछली गर्व नहीं करती जबकि अँगूठे के बराबर जल में अर्थात् थोड़े से जल में चलने वाली छोटी-सी मछली फुरफराती है अर्थात् खुद को दर्शाती हुई चलती है।
अतः आप सब छोटी मछली की तरह एक – एक के गुणों की चर्चा करना त्यागकर आपस में मिल-जुलकर प्रकृति की सुन्दरता एवं वन की रक्षा के लिए प्रयास करें।
सभी प्रकृतिमाता को प्रणाम करते हैं तथा मिलकर दृढ़ संकल्प के साथ गाते हैं-
आपस में विवाद या झगड़ा करने से प्राणियों की हानि होती है । परस्पर एक-दूसरे का सहयोग करने से उनका (प्राणियों का) लाभ होता है। अर्थात् यदि हम आपस में लड़ते हैं तो उससे एक-दूसरे का नुकसान होता है और अगर हम एक-दूसरे के कार्य में सहयोग करते हैं तो उससे सबका लाभ होना सुनिश्चित है।
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