दिया गया लेख में NCERT कक्षा 10 संस्कृत शेमुषी भाग 2 के दृतिय पाठ ‘शिशुलालनम् (Shishulalanam class 10 in Hindi)’ के हिंदी अर्थ का व्याख्या किया गया है।
Chapter 4 शिशुलालनम्
पाठ परिचय
प्रस्तुतः पाठः कुन्दमाला-इतिनाम्नो दिघ्नागविरचितस्यः संस्कृतस्य प्रसिद्धनाट्यग्रन्थस्य पञ्चमाङ्कात् सम्पादनं कृत्वा सङ्कलितोऽस्ति। अत्रा नाटकांशे रामः स्वपुत्रौ लवकुशौ सिंहासनम् आरोहयितुम् इच्छति किन्तु उभावपि सविनयं तं निवारयतः। सिंहासनारूढः रामः उभयोः रूपलावण्यं दृष्ट्वा मुग्ध: सन् स्वक्रोडे गृह्णाति। पाठेऽस्मिन् शिशुवात्सल्यस्य मनोहारिवर्णनं विद्यते।
प्रसिद्ध नाटककार दिङ्नाग द्वारा रचित संस्कृतवाङ्मय के प्रसिद्ध नाटक ‘कुन्दमाला’ के पंचम अङ्क से सम्पादित करके यह पाठ लिया गया है। प्रस्तुत नाटक में कवि ने रामकथा के उत्तरार्ध की करुण घटना का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है। पूरा नाटक वाल्मीकि के तपोवन के आस-पास ही है। लव और कुश से मिलने पर राम उन्हें गले लगाने के लालायित हो जाते हैं। वे कुश और लव को सिंहासन पर अपने पास, अपनी गोद में बैठाना चाहते हैं किन्तु वे दोनों अतिशालीनतापूर्वक मना करते हैं। सिंहासनरूढ़ राम कुश और लव के सौन्दर्य से आकृष्ट होकर उन्हें अपनी गोद में बैठा लेते हैं और आनन्दित होते हैं। इस पाठ में वात्सल्य प्रेम का अत्यन्त मनोहारी वर्णन किया गया है।
(सिंहासनस्थः रामः। ततः प्रविशतः विदूषकेफनोपदिश्यमानमार्गौ तापसौ कुलवौ)
(सिंहासन पर स्थित राम। इसके बाद प्रवेश करते हैं। विदूषक द्वारा मार्ग दिखाए जाते हुए तपस्वी कुश और लव)
विदूषकः – इत इत आर्यौ!
हे आर्यौ ! इधर से, इधर से ।
कुशलवौ – (रामम् उपसृत्य प्रणम्य च) अपि कुशलं महाराजस्य?
कुश और लव – (राम के समीप जाकर और प्रणाम करके) क्या महाराज कुशल हैं ?
रामः – युष्मद्दर्शनात् कुशलमिव। भवतोः किम् वयमत्रा कुशलप्रश्नस्य भाजनम् एव, न पुनरतिथिजनसमुचितस्य कण्ठाश्लेषस्य। (परिष्वज्य) अहो हृदयग्राही स्पर्शः।
(आसनार्ध्मुपवेशयति)
राम – आपके दर्शनों से कुशल हूँ। हम यहाँ आपकी कुशलता पूछने के पात्र हैं, नहीं फिर (आप जैसे ) अतिथियों को समुचित रूप से गले लगाने के पात्र हैं (हम) । (गले लगाकर) अरे ! हृदय को छूने वाला स्पर्श है ।)
उभौ – राजासनं खल्वेतत्, न युक्तमध्यासितुम्।
दोनों – यह राजा का आसन है, इस पर बैठना उचित नहीं है।
रामः – सव्यवधनं न चारित्रालोपाय। तस्मादङ्क – व्यवहितमध्यास्यतां सिंहासनम्। (अंकमुपवेशयति)
राम – (यह) व्यवधान ( रुकावट) के साथ, आचरण के लोप के लिए नहीं है। इसलिए गोद की रुकावट के साथ बैठ जाइए सिंहासन पर ।
(गोद में बैठाते हैं)
उभौ – (अनिच्छां नाटयतः) राजन्!
अलमतिदाक्षिण्येन।
दोनों – (अनिच्छा का अभिनय करते हैं) हे राजन्! अत्यधिक कुशलता मत कीजिए ।
रामः – अलमतिशालीनतया।
भवति शिशुजनो वयोऽनुरोधाद्
गुणमहतामपि लालनीय एव।
व्रजति हिमकरोऽपि बालभावात्
पशुपति-मस्तक-केतकच्छदत्वम्।।
राम – अधिक शालीनता मत कीजिए।
‘अत्यधिक गुणी लोगों के लिए भी छोटी उम्र के कारण बालक लालनीय ही होता है। चन्द्रमा बालभाव के कारण ही शङ्कर के मस्तक का आभूषण बनकर केतकी पुष्पों से निर्मित चूड़ा की भाँति शोभित होता है। ‘
रामः – एष भवतोः सौन्दर्यावलोकजनितेन कौतूहलेन पृच्छामि-क्षत्रियकुल- पितामहयोः सूर्यचन्द्रयोः को वा भवतोर्वंशस्य कर्त्ता?
राम – आप दोनों के सौंदर्य-दर्शन से उत्पन्न जिज्ञासा से यह पूछ रहा हूँ- क्षत्रिय कुल के पितामह सूर्य और चन्द्र में से आपके वंश का कर्ता (जनक) कौन है ?
लवः – भगवान् सहस्रदीधितिः।
लव – भगवान सूर्य ।
रामः – कथमस्मत्समानाभिजनौ संवृत्तौ?
राम – क्या ! हमारे ही वंश से सम्बन्धित हैं आप दोनों ?
विदूषकः – किम् द्वयोरप्येकमेव प्रतिवचनम् ?
विदूषक – क्या दोनों का एक ही उत्तर है ?
लवः – भ्रातरावावां सोदर्यौ।
लव – हम दोनों सगे भाई हैं।
रामः – समरूपः शरीरसन्निवेशः। वयसस्तु न किञ्चदन्तरम्।
राम – समान रूप तथा शरीर संरचना भी समान है। आयु का थोड़ा भी अन्तर नहीं है।
लवः – आवां यमलौ।
लव – हम दोनों जुड़वा (भाई) हैं।
रामः – सम्प्रति युज्यते। किम् नामधेयम्?
राम – अब उचित है। नाम क्या है ?
लवः – आर्यस्य वन्दनायां लव इत्यात्मानं श्रावयामि (कुशं निर्दिश्य) आर्योऽपि गुरुचरणवन्दनायाम् …………………………….
लव – आर्य (आप) की स्तुति में अपने आपको ‘लव’ सुना रहा हूँ ।
(कुश की ओर इशारा करके) आर्य भी गुरु चरणों की वन्दना में….
कुशः – अहमपि कुश इत्यात्मानं श्रावयामि।
कुश – मैं भी अपने आपको ‘कुश’ बताता हूँ।
रामः – अहो! उदात्तरम्यः समुदाचारः।
किम् नामधेयो भवतोर्गुरुः?
राम – अहो! अत्यधिक मनोहर शिष्टाचार है। आप दोनों के गुरु का क्या नाम है ?
लवः – ननु भगवान् वाल्मीकिः।
लव – भगवान वाल्मीकि ।
रामः – वेफन सम्बन्धेन?
राम – किस सम्बन्ध से।
लवः – उपनयनोपदेशेन।
लव – उपनयन संस्कार की (दीक्षा देने) के सम्बन्ध से।
रामः – अहमत्र भवतोः जनकं नामतो वेदितुमिच्छामि।
राम – मैं आप दोनों आरणीयों के पिता को नाम से जानना चाहता हूँ
लवः – न हि जानाम्यस्य नामधेयम्। न कश्चिदस्मिन् तपोवने तस्य नाम व्यवहरति।
लव – मैं इनका नाम नहीं जानता हूँ। कोई भी इस तपोवन में उनका नाम नहीं लेता (बोलता) है।
रामः – अहो माहात्म्यम्।
राम – अरे (बड़ी ) महत्ता है।
कुशः – जानाम्यहं तस्य नामधेयम्।
कुश – मैं जानता हूँ उनका नाम ।
रामः – कथ्यताम्।
राम – कहिए (बताइए)।
कुशः – निरनुक्रोशो नाम….
कुश – ‘निर्दय’ नाम है।
रामः – वयस्य, अपूर्वं खलु नामधेयम्।
राम – मित्र, निश्चय ही अनोखा नाम है।
विदूषकः – (विचिन्त्य) एवं तावत् पृच्छामि। निरनुक्रोश इति क एवं भणति?
विदूषक – (सोचकर) यह पूछ रहा हूँ कि (उन्हें) ‘निर्दय’ कौन कहता है ?
कुशः – अम्बा।
कुश – माँ।
विदूषकः – किम्कुपिता एवं भणति, उत प्रकृतिस्था?
विदूषक – क्या वे गुस्से में ऐसा कहती हैं या स्वाभाविक ( वास्तविक) रूप में ?
कुशः – यद्यावयोर्बालभावजनितं किञ्चदविनयं पश्यति तदा एवम् अधिक्षिपति- निरनुक्रोशस्य पुत्रौ, मा चापलम् इति।
कुश – यदि हम दोनों की बालभाव से उत्पन्न उद्दण्डता देखती हैं तब ऐसा (कहकर) फटकारती है- ‘निर्दय के पुत्रों, चञ्चलता मत करो’ ऐसा ।
विदूषकः – एतयोर्यदि पितुर्निरनुक्रोश इति नामधेयम् एतयोर्जननी तेनावमानिता निर्वासिता एतेन वचनेन दारकौ निर्भर्त्सयति।
विदूषक – यदि इनके पिता का नाम निर्दय (निरनुक्रोश) है, तो इनकी माता उससे अपमानित व निष्कासित होने के कारण इन्हें फटकारती हैं।
रामः – (स्वगतम्) धिङ् मामेवंभूतम्। सा तपस्विनी मत्कृतेनापराधेन स्वापत्यमेवं मन्युगर्भैरक्षरैर्निर्भर्त्सयति।
(सवाष्पमवलोकयति)
राम – (अपने मन में) ऐसे मुझको धिक्कार है। वह तपस्विनी मेरे द्वारा किए गए अपराध के कारण अपनी सन्तान को इस प्रकार अहंकार युक्त शब्दों से फटकारती है। (गीली आँखों से देखते हैं)
रामः – अतिदीर्घः प्रवासोऽयं दारुणश्च। (विदूषकमवलोक्य जनान्तिकम्)कुतूहलेनाविष्टो मातरमनयोर्नामतो वेदितुमिच्छामि। न युक्तं च स्त्रागतमनुयोक्तुम्, विशेषतस्तपोवने। तत् कोऽत्राभ्युपायः?
राम – यह प्रवास बहुत लम्बा व भयंकर दुर्लभ हो जाता है। (विदूषक को देखकर, अकेले में ) इनकी माता को (न बताए जाने के कारण) छूटे हुए नाम से जानना चाहता हूँ । स्त्री के विषय में पूछताछ उचित नहीं है, विशेष रूप से तापोवन में। तो यहाँ (इस विषय में) क्या उपाय है ?
विदूषकः – (जनान्तिकम्) अहं पुनः पृच्छामि। (प्रकाशम्)किम् नामधेया युवयोर्जननी?
विदूषक – (अकेले में) फिर मैं पूछ लेता हूँ। (स्पष्ट शब्दों में) तुम दोनों की माता का नाम क्या है ?
लवः – तस्याः द्वे नामनी।
लव – उसके दो नाम है।
विदूषकः – कथमिव?
विदूषक – कैसे ?
लवः – तपोवनवासिनो देवीति नाम्नाह्नयन्ति, भगवान् वाल्मीकिर्वधूरिति।
लव – तपोवनवासी उसे ‘देवा’ इस नाम से पुकारते हैं, (और) भगवान् वाल्मीकि ‘वधू’ इस नाम से।
रामः – अपि च इतस्तावद् वयस्य!
मुहूर्त्तमात्राम् ।
राम – मित्र, इसके अलावा क्या है ?
मुहूर्त मात्र के लिए।
विदूषकः – (उपसृत्य) आज्ञापयतु भवान्।
विदूषक – (पास जाकर) आज्ञा दीजिए आप ।
रामः – अपि कुमारयोरनयोरस्मावंफ च सर्वथा समरूपः कुटुम्बवृत्तान्तः? (नेपथ्ये)
इयती वेला सञ्जाता, रामायणगानस्य नियोगः किमर्थं न विधीयते?
राम – क्या इन दोनों कुमारों और हमारे वंश का वृत्तान्त पूर्णत: समान है ? (नेपथ्य में) इतना समय हो गया है, रामायण के गायन की तैयारी क्यों नहीं की जा रही है ?
उभौ – राजन्! उपाध्यायदूतोऽस्मान् त्वरयति।
दोनों – हे राजन् ! उपाध्याय का दूत हमें शीघ्रता के लिए कह रहा है।
रामः – मयापि सम्माननीय एव मुनिनियोगः। तथाहि-
भवन्तौ गायन्तौ कविरपि पुराणो व्रतनिध्रि्
गिरां सन्दर्भोऽयं प्रथममवतीर्णो वसुमतीम्।
कथा चेयं श्लाघ्या सरसिरुहनाभस्य नियतं
पुनाति श्रोतारं रमयति च सोऽयं परिकरः।।
वयस्य! अपूर्वोऽयं मानवानां सरस्वत्यवतारः, तदहं सुहृज्जनसाधरणं श्रोतुमिच्छामि। सन्निधीयन्तां सभासदः, प्रेष्यतामस्मदन्तिकं सौमित्रिः, अहमप्येतयोश्चिरासनपरिखेदं विहरणं कृत्वा अपनयामि।
(इति निष्क्रान्ताः सर्वे)
राम – मुनि की व्यवस्था हमारे लिए भी सम्मानीय है क्योंकि-
‘आप दोनों (कुश और लव) इस कथा का गान करने वाले हैं, तपोनिधि पुराण मुनि (वाल्मीकि) इस रचना के कवि हैं, धरती पर प्रथम बार अवतरित होने वाला स्फुट वाणी का यह काव्य है और इसकी कथा कमलनाभि विष्णु से सम्बद्ध है इस प्रकार निश्चय ही यह संयोग श्रोताओं को पवित्र और आनन्दित करने वाला है।’
मित्र! सरस्वती का यह अवतार मानवों के लिए अनोखा है, मैं उस जनसाधारण के हृदय (में स्थित) भाव को सुनना चाहता हूँ। सभी सभासद बैठ जाएँ। लक्ष्मण को मेरे पास भेजा जाए। मैं भी उन दोनों के चिरकालजनित कष्ट को विहार करके (जाकर) दूर कर देता हूँ। (इस प्रकार सभी निकल जाते हैं। )
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